हम सब कुछ न कुछ खोजते रहते है क्या ????? गलत ! ‘खोजना’ ‘मानसिक’ अभिव्यक्ति है और ‘तलाशना’ ‘आंखो’ की फितरत ! जब तक आंखे खुली है’ आंखो की पुतलियाँ कभी दांये तो कभी बांये तो कभी मध्य और तो और कभी मध्य से लेकर दायीं ओर तक तो कभी मध्य से लेकर बायीं ओर तक सब कुछ समेट कर इन आँखो के छोटे से सागर मे उसे असीम वृहतर समझ कर छुपा लेना चाहती हैं। तो फिर इन आँखो का दोष क्या है। इनमे अटकी छुपी पुतलियों ने बच्चों की तरह एक स्तब्ध सा रौल मचा रखा है – आंखो को परेशान कर रखा है । पर पुतलियों को कुछ कहो तो वो बहने लगती है निर्झर की तरह – क्योकि उनको लगता है कि उन्होने तो सारा दिन काम किया है। आंखो को सारी सृष्टि खोज कर दी है। और फिर मन कहता है – आंखो से – ढक लो इस अनमोल खजाने को सीप की तरह और मुझे अब अपना काम करने दो – ‘खोजने’ का। मुझे खोजने दो इसमे से हर वो चीज जिसकी जरूरत तुुम्हारी पुतलियां तलाश करते वक्त समझ ही नही पायी – वो तो बस बेकरार थी सब कुछ समेटने के लिये पर मुझे खोजने दो उन समेटी हुई चोजो से वो जरूरी चीज जो तुम्हारी जिन्दगी के लिये जरूरी है। और इस तरह तलाश और खोज की यात्रा समाप्त होती है – मन उन्ही संप्रेषित भावों से खोजता है जीवन की अभिव्यक्ति और जरूरतों का समीकरण। अंधेरा या उजाला बुरा नही होता क्योकि इसको प्रेषित करती हैं पुतलियां , सहेजती है आंखे और इसकी जरूरत अभिव्यक्त करता है मन। इसी तरह सुख-दुख, अच्छा-बुरा, प्यार- नफरत हर बात में यही सिलसिला चलता रहता है।
तो मेरे प्यारे दोस्तो, सखियों, भाईयो, बहनो, बच्चो कभी जीवन मे किसी को दोष मत दो। दोष प्रेरित अभिव्यक्ति मन भर देगा यदि तुमने आंखों से सिर्फ दोष देखा तो। दोष जनित हर चीज को पुतलियों ने पकङ लिया तो।
इस भव्य संसार मे दोष रहित बहुत कुछ है पुतलियों के सहेजने के लिये बस आंखो को खोलों तो समझ कर कि मन भी साथ साथ खोजने के काम पर लग चुका है। इसलिये अपनी पुतलियों को अच्छा देखने का अवसर दो और हर समय अच्छा , सच्चा , दोष रहित , निर्मल वातावरण देखने दो और उसे हो सहेजने दो।
